संघस्थ व्रतिकों की वैयावृत्ति

                     इस यात्रा में ये ब्रह्मचारी लोग बैलगाड़ी से प्रवास कर रहे थे अतः इन लोगों ने बहुत कष्ट झेले हैं। जहाँ प्रातः ७-८ बजे पहुँचते थे । वहाँ कपड़े धोकर सुखाते, फिर चौका बनाते थे। कपड़े कुहरा, ठंडी, ओस अथवा बारिश में सूख ही नहीं पाते थे । प्रायः गीले-सीले पहन कर चौका बनाकर आहार देते थे । ग्यारह बजे लगभग आहार होने से ये लोग १२-१ बजे भोजन करते तब वैसे ही ठंडा और रूखा-सूखा भोजन कर लेते। प्रकाशचंद और मनोवती तो पेट भी नहीं भर पाते थे। इसके बाद जल्दी-जल्दी बर्तन साफकर, सब सामान बांधकर, प्रायः ३–४ बजे बैलगाड़ी रवाना कर देते, तब कहीं मेरे विश्राम के स्थान पर रात्रि में ११-१२ बजे आ पाते थे। बाद में हम लोगों के लिए घास बिछाकर जब स्वयं सोते तो १२–१ सहज बज जाता। इसके बाद पिछली रात्रि में तीन बजे ही उठकर गाड़ी में घास और अपने बिस्तर आदि डालकर गाड़ी में बैठकर चल पड़ते, फिर भी आहार के स्थान पर गाड़ी ७-८ बजे पहुँच पाती थी। इस यात्रा में हम साध्वियों को भी प्रतिदिन प्रायः रात्रि में ११ – १२ बजे घास मिलती और तीन बजे वापस घास छोड़ देनी होती थी। उस समय उम्र और स्वास्थ्य की कुशलता से ये कष्ट झेल लिये थे। आज तो कथमपि संभव नहीं है। बंद कमरे में शाम को ५ बजे से घास में बैठकर प्रातः ६ बजे घास से निकलना होता है । ऐसे ही इनके पास नौकर न होने से ये दोनों, चौके का पानी भरना, आटा पीसना, बर्तन मांजना पुनः सामान बांधकर गाड़ी में लादना आदि सारी मेहनत स्वयं करते थे। फिर भी इन लोगों को अरुचि, अशांति नहीं थी। इन लोगों ने इस यात्रा में इस वैयावृत्ति और गुरुसेवा से महान् पुण्य बंध किया, इसमें कोई संदेह नहीं है ।

                   ब्रह्मचारी जी ने बताया था कि कानपुर से उन्हें एक गाड़ीवान् ऐसा मिल गया था जो कि ब्राह्मण था, मेरी थाली का ही प्रसाद खाता था और दिन में एक बार ही भोजन करता था। न बीड़ी-सिगरेट, न पान, न रात्रि भोजन, वह बहुत सात्विक था, उसकी मेरे प्रति बहुत भक्ति थी, रोज नमस्कार करके भोजन करता था। वह हम आर्यिकाओं की धोती धोने के लिए बहुत ही लालायित रहता था लेकिन मेरी आज्ञा न होने से संघस्थ ब्रह्मचारिणियाँ स्वयं हम लोगों की धोतियाँ धो लेती थीं। वह कहता – “बाबाजी ! यदि मैं कुछ भी माताजी की सेवा नहीं कर सकता हूँ तो धोती ही धो लाउँ, मुझे कुछ भी लाभ तो मिल जाये।“ बाबाजी कहते – “ मैं क्या करूँ? बाइयाँ धो डालती हैं।“ ब्र. जी कहते थे कि – “इसके बैल भी खूब बड़े-बड़े हैं और गाड़ी भी बड़ी है अतः दो गाड़ी की अपेक्षा मेरा एक से ही काम चल जाता है। यह गाड़ीवान् बाबाजी के साथ शिखरजी तक रहा है पुनः वंदना करके आशीर्वाद लेकर घर गया ।